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यूपी के नए सीएम का खुलासा विकीपीडिया पर हो गया
यूपी के नए सीएम का खुलासा विकीपीडिया पर हो गया
यूपी का मज़ाक उड़ता था कि वहां पांच-पांच सीएम हैं, पर लेओ. अब एक भी नहीं है. बीजेपी के पास इत्ते विधायक हो गए हैं कि समेटा नहीं जा रहा. विराट कोहली को चोट लगती है, पर जनता कि धुकधुकी इस बात पर बढ़ी रहती है कि यूपी में सीएम के लिए बीजेपी कब-किसका नाम दे देगी. मैच से ज्यादा रोमांच यहां है.
अब रोमांच में खखोरपना करने वाले भी कम थोड़े हैं. विकीपीडिया पर उत्तर प्रदेश का अगला सीएम घोषित भी कर डाला गया. कोई गया और विकीपीडिया पर यूपी के अगले सीएम के तौर पर योगी आदित्यनाथ का नाम लिख डाले. और जॉइनिंग की डेट डाले एक दिन आगे की. ये होता है कांफिडेंस.
यार माने रुक जाते. अभी तो वेबसाइट्स ने ‘न घर है न जमीन, लेकिन राइफल-CAR के शौकीन हैं आदित्यनाथ’ टाइप्स स्टोरी करनी शुरू ही की थीं. हम मानते हैं कि ‘आदित्यनाथ फॉर यूपी सीएम’ जैसे पेज बने हैं फेसबुक पर रुक जाओ दोस्तों. इत्ती जल्दी काहे की है? ठहर जाओ. जब होगा, बनेगा तो पता लगेगा.
फिर लोगों ने अलग तरीके से मौज लेनी शुरू कर दी है. अभी-अभी हमें पता लगा कि विकीपीडिया के हिसाब से अखिलेश कभी सीएम थे ही नहीं, सीएम कोई आरजे तनय मिश्रा थे. और अभी के सीएम संजय गुप्ता हो गए हैं. लोगों ने इस पेज पर बवाल मचाना शुरू किया है. अब जिसका जो मन आ रहा है लिखे जा रहा है.
एक इनकी होशियारी भी देख लीजिए.
मजाक-वजाक जो जहां है वहां. सीरियस बात ये कि जो सच में सीएम पद की रेस में आगे हैं. उनको जान लीजिए.
1. सतीश महाना
साल 1991 से लगातार विधायक
(पांच बार कानपुर कैंट से, दो बार महाराजपुर से)
कानपुर में संघ के एक स्वयंसेवक थे. रामअवतार महाना. 1960 में उनके यहां एक लड़का हुआ. नाम रखा सतीश. सतीश कुछ बड़ा हुआ तो अपने पिता के साथ संघ की शाखाओं में जाने लगा.
लेकिन सतीश महाना पूरी तरह राजनीतिक हुए राम मंदिर आंदोलन के समय. अयोध्या में कार सेवा के समय बीजेपी को नेताओं की एक पूरी खेप मिली, जिनमें महाना भी शामिल थे. 1991 के चुनाव में पार्टी ने कानपुर छावनी विधानसभा सीट से टिकट देकर उन्हें इनाम दिया. महज 31 की उम्र में वो राम लहर में पहली बार चुनाव जीत गए.
लेकिन इसके बाद उन्होंने खुद को एक कुशल नेता के तौर पर स्थापित कर लिया. इसके बाद वो चार बार, अलग-अलग पार्टियों के अलग-अलग प्रत्याशियों को हराकर इसी सीट से चुनाव जीते.
फिर 2012 चुनाव से पहले परिसीमन हो गया. छावनी विधानसभा का बड़ा हिस्सा कटकर महाराजपुर में चला गया. इसके बाद महाना ने छावनी सीट छोड़ दी और महाराजपुर से लड़ने चले गए. भविष्यवाणियां हुईं कि अब उनके लिए चुनाव मुश्किल हो जाएगा. लेकिन सपा लहर के बावजूद वो वहां से भी 33 हजार वोटों के बड़े अंतर से चुनाव जीते.
ताजा चुनाव में उन्होंने करीब 92 हजार वोटों के अंतर से जीत दर्ज की है. स्थानीय पत्रकार उन्हें कानपुर और आस-पास के जिलों में सबसे लोकप्रिय भाजपा विधायक बताते हैं. वजह सिर्फ एक, कि वह सर्वसुलभ हैं. जिन दो सीटों से वो चुनाव जीते हैं, वहां उनकी बिरादरी के वोट न के बराबर हैं. सवर्णों-पिछड़ों और हर आर्थिक तबके में उनका अच्छा समर्थन है.
एक बात और है. कई लोग मानते हैं कि सतीश महाना जितने समय से पार्टी में परफॉर्म कर रहे हैं, उन्हें वैसा इनाम नहीं मिला. 2009 में ही उन्हें कानपुर से सांसदी का टिकट मिला था, लेकिन जीत नहीं सके. 2014 में भी टिकट मिलना था. लेकिन नरेंद्र मोदी वाराणसी लड़ने आ गए तो मुरली मनोहर जोशी को कानपुर शिफ्ट करना पड़ा. इससे महाना फिर सांसदी से वंचित रह गए.
महाना पुराने बीजेपी नेता हैं. उन्हें बहुत कम लोग नापसंद करते हैं. अरुण जेटली से उनके अच्छे संबंध हैं. सीएम उम्मीदवारी के बारे में पूछे जाने पर अभी वो ‘मेरी पार्टी कार्यकर्ता की हैसियत है’ वाला जवाब ही दे रहे हैं.
भाजपा को इस बार ब्राह्मण, ठाकुर और पिछड़ों का बंपर वोट मिला है. इसलिए पार्टी किसी वर्ग को नाराज नहीं करना चाहती. खास तौर से पिछड़े को सीएम बनाने से सवर्ण बिदक सकते हैं. कुछ जानकारों का मानना है कि महाना इसीलिए सांचे में फिट हो रहे हैं. वो पंजाबी खत्री हैं और उनके आने से सबकी नाराजगी और खुशी का स्तर समान हो जाएगा.
दूसरा, भौगोलिक नजरिये से भी कानपुर की स्थिति बीजेपी की भविष्य की सियासत के अनुकूल है. महाना को मुख्यमंत्री बनाने का असर इटावा मंडल पर भी पड़ेगा, जो मुलायम बेल्ट कही जाती है. कानपुर का CM बनाकर पार्टी पूरे मध्य क्षेत्र को खुश कर देगी. बुंदेलखंड भी कानपुर से सटा हुआ है तो वो भी आ जाएगा. पूर्वांचल भी यहां से बहुत दूर नहीं है.
महाना विवादित नहीं है. कट्टर नहीं हैं. वो किसी गुट में नहीं आएंगे. संघ की पृष्ठभूमि भी है. इसलिए अमित शाह के लिए उन्हें मैनेज करना आसान होगा.
महाना के कई घर हैं. लेकिन वह हरजेंदर नगर, कानपुर में रहते हैं. उनका एक बेटा और एक बेटी है, जो प्रॉपर्टी डीलिंग और अपने स्कूल का काम देखते हैं.
2. सुरेश खन्ना
साल 1989 से लगातार शाहजहांपुर के विधायक.
यूपी के मुख्यमंत्री पद के लिए अमित शाह इन पर दांव लगा सकते हैं.
सुरेश खन्ना खत्री पंजाबी हैं, लेकिन उनकी पैदाइश शाहजहांपुर की ही है. 1953 की. लखनऊ यूनिवर्सिटी से एलएलबी किया और वहीं से छात्र राजनीति की शुरुआत की. इसी राजनीति ने उन्हें RSS तक पहुंचाया और RSS ने बीजेपी तक. लेकिन विधायक बनने के लिए सुरेश ने बीजेपी के टिकट का इंतजार नहीं किया था. 1980 में उन्होंने लोकदल के टिकट पर विधायकी का चुनाव लड़ा. हार गए. 1985 तक बीजेपी में शामिल हो चुके थे, तो बीजेपी से लड़े. फिर हारे, लेकिन दूसरे नंबर पर रहे. इसके बाद फिर कभी नहीं हारे.
1989 में सुरेश ने बीजेपी के टिकट पर नवाब सिकंदर अली खान को 4,899 वोटों से हराया था. नवाब पिछला चुनाव कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीते थे और निर्दलीय लड़ते हुए अपनी विधायकी बचाने उतरे थे. 1991 की रामलहर में सुरेश ने जनता दल के मोहम्मद इकबाल पर 28,237 वोटों की बड़ी जीत दर्ज की थी. 1993 में उन्होंने सपा के अशोक कुमार को 16,868 वोटों से हराकर हैट्रिक बनाई. 1996 में नवाब सिकंदर अली फिर आए. कांग्रेस के टिकट पर. लेकिन वो इस बार भी सुरेश से 22,265 वोटों से हार गए. 2002 में चुनाव हुए, तो सुरेश ने सपा के प्रदीप पांडेय पर 23,037 वोटों से हराया.
2007 में बीएसपी की लहर थी, तो बीएसपी के फैजन अली खान दूसरे नंबर पर रहे. सुरेश ने 10,190 वोटों से फिर जीत दर्ज की. डबल हैट्रिक बनी. 2012 के चुनाव में सपा लहर थी, तो सपा के तनवीर खान दूसरे नंबर पर रहे. ये अखिलेश के करीबी बताए जाते हैं और अभी शाहजहांपुर की नगर पालिका के अध्यक्ष हैं. पिछले चुनाव में वो 16,178 वोटों से हारे थे और इस बार के चुनाव में 19,203 से हारे.
इस बार शाहजहांपुर की सदर सीट पर सपा और बसपा, दोनों ने मुस्लिम कैंडिडेट उतारे थे. तीसरे नंबर पर रहे बीएसपी कैंडिडेट मोहम्मद असलम खान को सिर्फ 16,546 वोट मिले. अगर आंकड़ों और समीकरणों के आधार पर सुरेश खन्ना की जीत का आकलन करें, तो कोई निष्कर्ष नहीं मिलता. खन्ना अपनी विधानसभा के गांवों के बूते चुनाव जीतते हैं. ये गांववाले सुरेश को इसलिए चुनाव जिताते हैं, क्योंकि वो इनकी पहुंच में हैं.
सुरेश खुद भी यही बताते हैं. जब हमने उनसे उनकी जीत का राज पूछा, तो वो बोले, ‘मैं 2004 में लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ना चाहते था, लेकिन पार्टी के कहने पर बिना तैयारी के उतरना पड़ा. हमारी विधानसभा के लोग हमसे सीधे जुड़े हैं, लेकिन लोकसभा चुनाव में अगर कोई बिरादरी का कैंडिडेट आ जाता है, तो वो चाहे बिल्कुल निष्क्रिय हो, लोग उसी को समर्थन देते हैं.’ सुरेश 2004 का लोकसभा चुनाव शाहजहांपुर से ही हार गए थे. इसके बाद वो कभी सांसदी नहीं लड़े.
यूपी में अप्रत्याशित बहुमत हासिल करने के अगले दिन 12 मार्च को पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने खन्ना को दिल्ली बुलाया. खन्ना पहुंचे. 13 तारीख को बीजेपी की संसदीय बोर्ड की बैठक में शामिल हुए. अब इन्हें बड़ा पद मिल सकता है.
सुरेश खन्ना ने शादी नहीं की. खुद को फुल टाइम पॉलिटीशयन मानते हैं. जमीनी नेता माना जाता है. इलाकाई लोग बताते हैं कि कभी-कभार लोगों को इलाज कराने हॉस्पिटल जाते हैं, तो जरी और कालीन के मुस्लिम कारीगरों की भी मदद करते हैं.
एक व्यापारी समर्थक इनके पक्ष में कहता है, ‘लोगों को शाहजहांपुर आकर देखना चाहिए कि जो नेता जनता की सेवा करते हैं, जनता कैसे उनके साथ जुड़ी रहती है.’ खन्ना की सीट पर उनकी खुद की बिरादरी का वोट डेढ़ हजार से ज्यादा नहीं है. फिर भी वो आठ बार से विधायक हैं.
शाहजहांपुर शहीदों का शहर है. रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला खां की जमीन है ये. खन्ना के काम की बात करने पर ये बातें भी बताई जाती हैं कि उन्होंने खनौत नदी के बीच हनुमान की सवा सौ फुट ऊंची मूर्ति बनवाई और बिस्मिल, अशफाक और ठाकुर रोशन सिंह के नाम पर शहीद स्मृति पार्क बनवाया.
3. दिनेश शर्मा
लखनऊ के मेयर हैं और बीजेपी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी
शर्मा को नरेंद्र मोदी और अमित शाह, दोनों का बेहद विश्वस्त माना जाता है. 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रचंड जीत दर्ज करने के बाद मोदी और शाह ने दिनेश को अपने गृहप्रदेश गुजरात का प्रभारी बनाया था. यानी उनके पास आलाकमान का पूरा भरोसा है. पिछले साल दशहरे पर नरेंद्र मोदी ने लखनऊ के लक्ष्मण मैदान में जो रैली की थी, उसकी जिम्मेदारी भी दिनेश शर्मा के कंधों पर थी. इस रैली में मोदी का ‘जय श्री राम’ बोलना खूब चर्चित हुआ था. एक और महत्वपूर्ण बात, शर्मा के पास RSS का समर्थन भी है.
महाराष्ट्र, हरियाणा और असम में पार्टी ने ऐसे नेताओं को सीएम बनाया, जो पहले से चर्चा में नहीं थे. पद मिलने से पहले राज्य के बाहर कम ही लोग उन्हें जानते थे. खास रणनीति के तहत पार्टी ने ऐसे नेता चुने, जिनकी निजी महत्वाकांक्षा कम थी और वो हर परिस्थिति में राष्ट्रीय नेतृत्व के अंडर रहकर ही काम करेंगे. शर्मा इस खांचे में फिट बैठते हैं. वो सीएम बने, तो लखनऊ का संचालन भी दिल्ली से हो सकता है.
दिनेश 2008 में पहली बार लखनऊ के मेयर बने थे. 2012 में जब दोबारा चुनाव हुए, तो उन्होंने कांग्रेस के नीरज वोरा को 1.71 लाख वोटों के अंतर से हराया था. उस समय कांग्रेस में रहे वोरा बाद में बीजेपी में शामिल हो गए और इस बार के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने उन्हें लखनऊ नॉर्थ सीट से उतारा था, जहां उन्होंने सपा कैंडिडेट अभिषेक कुमार को 27,276 वोटों से हरा दिया. वोरा को 1,09,315 वोट मिले.
पिछले साल जब दी लल्लनटॉप ने दिनेश शर्मा से बात की थी, तो ‘विकास की राजनीति’ के फायदे गिनाते हुए शर्मा ने कहा था, ‘विकास की राजनीति के नतीजे गुजरात में देखने को मिले हैं. आपको पता ही नहीं चलता कि कौन किस जाति का आ जाएगा. कौन सा पद किसको मिल जाएगा. वहां पर योग्यता के हिसाब से समाज चलता है.’
आखिरी चरण के मतदान के बाद काउंटिंग से पहले अखिलेश के उस बयान ने खलबली मचा दी थी, जिसमें उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से मायावती से हाथ मिलाने का संकेत दिया था. ये दिनेश शर्मा ही थे, जिन्होंने पिछले साल ही अखिलेश को मायावती संग गठबंधन का न्योता दे दिया था. तब तक सपा-कांग्रेस गठबंधन फाइनल नहीं था, लेकिन सुगबुगाहट थी.
हमारे साथ बातचीत में उन्होंने कहा था, ‘जो कमजोर होता है, वो गठजोड़ की बात करता है. जो मजबूत होता है, वो खुद से लड़ता है. मेरा तो निमंत्रण है यूपी के मुख्यमंत्री महोदय को कि वो अपनी बुआजी को भी साथ कर लें. परिवार तक सीमित पार्टियों को विस्तार की जरूरत होती है.’
यूपी में सरकार बनाने के बाद अब बीजेपी के पास बहाने बनाने का मौका नहीं होगा. जिस विकास के नाम पर उसने वोट बटोरा है, वो उसे अब डिलीवर करना होगा. फिर चाहे सड़क हो, गंगा-सफाई हो या बिजली आपूर्ति. सोशल मीडिया पर राम मंदिर की भी बयार है. दिनेश शर्मा पहले ही दावा कर चुके हैं कि अगर बीजेपी सरकार में आई, तो 24 घंटे बिजली दी जाएगी.
देखते हैं यूपी में सेहरा किसके सिर सजता है.
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Location:
Uttar Pradesh, India
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