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तारेक फ़तेह के साथ हुई बदतमीज़ी और भंसाली पर हुए हमले में सिर्फ थप्पड़ का फ़र्क है

तारेक फ़तेह के साथ हुई बदतमीज़ी और भंसाली पर हुए हमले में सिर्फ थप्पड़ का फ़र्क है



तारेक फ़तेह मुसलमानों के नए सलमान रश्दी हो गए हैं. एक और तस्लीमा नसरीन बन गए हैं. एक बड़े वर्ग ने उन्हें इस्लाम के दुश्मन के रूप में आइडेंटीफाई कर लिया गया है. अब सारी एनर्जी बस तारेक फ़तेह को विलेन साबित करने में ही खर्च हो जानी है. विरोध ज़रूर कीजिए लेकिन इस तरह नहीं.
हिंद की सरजमीं पर उर्दू के सबसे बड़े जलसे ‘जश्न-ए-रेख्ता’ में इतवार की शाम तारेक फ़तेह के साथ जो हुआ, वो किसी भी तरह से जस्टिफाई नहीं हो सकता. कोई शख्स आपकी मज़हबी लाइन को टो नहीं करता, तो इसका मतलब ये नहीं है कि आप हुजूम बना कर उस पर हमला करो. उसे किसी जलसे में उपस्थित रहने के अपने अधिकार से वंचित करो. तारेक फ़तेह जश्न-ए-रेख्ता में गेस्ट नहीं थे. वो एक दर्शक की तरह वहां पहुंचे थे. जब वो लोगों को ऑटोग्राफ दे रहे थे, तब 40-50 लोगों की भीड़ ने उनके खिलाफ़ नारेबाज़ी की, अपशब्द कहें, यहां तक कि उन्हें वेन्यू से निकलवा कर ही दम लिया.
तारेक फ़तेह मुर्दाबाद के नारे लगे. ‘भगाओ साले को’ बोला गया. तारेक के साथ हुई बदतमीज़ी और भंसाली पर हुए हमले में सिर्फ थप्पड़ का ही फ़र्क नज़र आता है. वरना मूल तो वही घृणा है, जो धार्मिक भावना के बेसबब आहत होने से उपजती है.
भारतीय मुसलमानों को समझना होगा कि इस तरह की घटनाएं इस कठिन दौर में उनकी पोजीशन को और भी ख़राब करती है. तानाकशी का, आरोप-प्रत्यारोप का, ‘मैं उजला-तू काला’ कहने का का जो माहौल है आजकल, उसमें ऐसी कोई घटना मुसलमानों को बहुत बैड लाइट में पेश करेगी. कर रही है.
इस घटना के बाद तारेक फ़तेह ने एक ट्वीट किया है जिसमें उन्होंने रेख्ता का ज़िक्र ‘इस्लामिक फेस्ट’ कह के बताया. ये भी अपनी तरह की एक जाहिलियत ही है. जो शख्स़ मज़हबी कट्टरता के खिलाफ़ ताल ठोकने का दावा करता नहीं थकता, वो किसी ज़बान को, किसी जलसे को मज़हब से जोड़ दे तो उसकी मंशा पर शक़ ज़रूर किया जाना चाहिए. जिस शख्स़ को यही नहीं पता कि रेख्ता के फाउंडर संजीव सराफ हैं, जिनका इस्लाम से कोई नाता नहीं वो खुद को स्कॉलर कहता सही नहीं लगता. लेकिन इससे उसके साथ हुई बदतमीज़ी की ग्रेविटी कम नहीं हो जाती.

हो सकता है तारेक फ़तेह की कुछ बातों से आप सहमत ना हो. असहमति आपका बुनियादी अधिकार है. इसमें कुछ गलत नहीं. लेकिन इससे आपको किसी शख्स के खिलाफ़ गिरोहबंदी कर के उसे किसी जगह से खदेड़ने का हक़ नहीं मिल जाता. ऐसा ही कुछ साल पहले सलमान रश्दी के साथ जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के समय हुआ था. तस्लीमा नसरीन को इस्लाम का दुश्मन मानने वालों की संख्या भी कुछ कम नहीं. लेकिन यहां एक बात को बहुत साफ़ ढंग से समझने की ज़रूरत है कि सलमान रश्दी, तस्लीमा या तारेक का विरोध उनसे बदतमीज़ी करना कतई नहीं हो सकता. आपत्ति दर्ज करने के और भी कानून सम्मत तरीके हैं.
हाईकोर्ट में एक याचिका दाखिल की गई है जिसमें तारेक के शो ‘फ़तह का फतवा’ का प्रसारण तत्काल रोकने की मांग की गई है. याचिकाकर्ता को लगता है कि इससे दो समुदायों के बीच वैमनस्य बढ़ रहा है. मैंने इसका एक भी एपिसोड नहीं देखा है सो उसपर टिप्पणी नहीं करूंगा. लेकिन याचिकाकर्ता ने जो रास्ता अपनाया है विरोध दर्ज करने का, वही सही है. आप जाइये कोर्ट और इस देश की न्यायपालिका देख लेगी कि क्या करना है.
भीड़ बनाकर किसी पर टूट पड़ना बस यही दिखाएगा कि आप मज़हबी कट्टरता से ड्राइव होने वाला तबका हैं महज़. अगर हर आवाज़ को भीड़ बनाकर खामोश करने की कोशिश करेंगे तो उन इल्ज़ामात को ही सही ठहरा रहे होंगे, जिनमें आपकी धार्मिक चेतना को आपके पतन की सबसे बड़ी वजह माना जाता है.
तारेक फ़तेह के खिलाफ़ नारे लगाती भीड़ में से कोई कहता है, “जाइए, जाइए. ये मुल्क नहीं चाहता आपको.” ये कौन तय करेगा कि ये मुल्क किसको चाहता है, किसको नहीं? इस देश में पहले ही बहुत से लोग भरे पड़े हैं जो अपने हिसाब से तय कर रहे हैं इस मुल्क में किस-किस को रहना है. एक और तबका नहीं चाहिए जो अपनी व्यक्तिगत घृणा को मुल्क की मांग बताने पर उतारू हो जाए.
तारेक फ़तेह कोई आलिम-फ़ाज़िल हैं या एक अटेंशन सीकर इसको अपनी समझ के हिसाब से तय करने का अधिकार हर एक को है. लेकिन उनकी अभिव्यक्ति के अधिकार पर हमला बोलने का किसी को हक़ नहीं. कुछ लोगों की इस हरकत ने एक बहुत शानदार प्रोग्राम पर कलंक सा लगा दिया है. ‘जश्न-ए-रेख्ता’ की चर्चा उसके शानदार आयोजन की वजह से नहीं बल्कि इस कंट्रोवर्सी के लिए हो रही है. ये अन्याय है. महज़ कुछ लोगों की मूर्खता एक बेहद अच्छे प्रोग्राम पर कालिख़ पोत गई. हर जगह जब मज़हब घुसेड़ दिया जाए तो यही होता है. अपनी धार्मिक चेतना को ओढ़ने-बिछाने से परहेज़ करना सीखना ही होगा भारतीय मुसलमानों को.

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